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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 4 

"भाग्य के भी खेल कैसे निराले होते हैं । कभी उजालों में अंधेरे तो कभी अंधेरों में उजाले होते हैं । किसको पता है कि कल क्या होगा ? मगर मनुष्य कल की चिन्ता में वर्तमान को व्यर्थ कर देता है । शायद इसी को मोह माया कहते हैं । शास्त्रों में इसीलिए तो कहा है कि पूत सपूत तो क्यों धन संचय और पूत कपूत तो क्यों धन संचय ? अर्थात धन संचय करना ही क्यों है ? ये संचय करने की प्रवृत्ति ही तो दुःख का मूलाधार है । सारा जहां मेरे कदमों तले होना चाहिए । सारा ऐश्वर्य मेरी मुठ्ठी में होना चाहिए और सारा सौन्दर्य मेरी बाहों में होना चाहिए । इन्ही अनंत कामनाओं के भंवर में फंसकर मनुष्य अपना वर्तमान खराब कर लेता है । यह मनुष्य देह भोग विलास करने के लिए नहीं दी है प्रभु ने । पर मनुष्य इसे भोग विलास में ही समाप्त कर देता है । ईश्वर का परम  उपकार है कि हमें यह मनुष्य जन्म मिला है और इस मनुष्य जन्म को भगवान की भक्ति करने में लगायें तो हमें वह प्राप्त हो सकता है जिसके लिए हमें यह जन्म मिला है । अर्थात भगवद् प्राप्ति ही इस जन्म का मुख्य उद्देश्य है और हमें अपनी इच्छाओं को सीमित करते हुए प्रभु चरणों में अनुराग रखते हुए धीरे धीरे वैराग्य अपनाना चाहिए । यही एकमात्र तरीका है प्रभु का प्रेम पाने का । मगर मनुष्य तो कामनाओं के वन में ऐसे विचरता है जैसे कस्तूरी मृग । कस्तूरी उस मृग की नाभि में होती है जिसकी गंध उसे चैन नहीं लेने देती है और वह उस कस्तूरी को संपूर्ण वन में ढूंढने की कोशिश करता है जो कभी प्राप्त नहीं होती है और एक दिन मृग मरीचिका में भटकते भटकते उस मृग की मृत्यु हो जाती है । मनुष्य का भी यही हाल है । उसकी मुक्ति का मार्ग उसे ज्ञात है किन्तु वह लालसाओं के रंगीले संसार में गोते लगाने में अपना सारा जीवन खपा देता है और ये लालसाऐं ऐसी हैं जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं " । शुक्राचार्य जी ने अपने शिष्यों को आज का पाठ पढ़ाते हुए कहा । "आज महाशिवरात्रि का महा अनुष्ठान है । मुझे पहले घर में पूजा करनी है और उसके बाद महाराज वृषपर्वा ने एक बहुत बड़ा सार्वजनिक उत्सव रखा है । मुझे उसमें जाना होगा । अत: आज का अध्ययन इतना ही होगा । इसे अच्छी तरह मन में उतार लो और अपनी इच्छाओं को आज से ही सीमित करना शुरू कर दो" । इतना कहकर शुक्राचार्य अपने स्थान से उठे और अपने घर चले गये । 

घर पर पत्नी जयंती ने पूजा की समस्त तैयारियां कर रखी थीं । पति पत्नी में सुन्दर समन्वय हो तो काम बहुत अच्छा हो जाता है । पति को कब क्या चाहिए, एक पत्नी से अधिक और कौन जान सकता है ? पत्नी को पति के हृदय की स्वामिनी ऐसे ही थोड़े ना कहा जाता है ? पति के हृदय पर एकमात्र उसी का तो अधिकार होता है । चूंकि वह अपने स्वामी के हृदय की स्वामिनी है इसलिए स्वामी के हृदय की हर धड़कन का उसे पता होता है । स्वामी को कब क्या चाहिए, वह सपने में भी बता देती है । दाम्पत्य जीवन ऐसा ही होता है । जिन पति पत्नियों में ऐसा समन्वय नहीं है वे लोग बस, नाममात्र के पति पत्नी हैं । 

जयंती ने पूजा का समस्त सामान करीने से सजा दिया था । शुक्राचार्य अपने आसन पर बैठे और पूजा प्रारंभ करने लगे । अचानक उन्हें कुछ याद आया "भार्ये, देव दिखाई नहीं दे रही है । कहां है वह" ? 
"आपकी पूजा के लिए वह गुलाब के फूल लेने गई है, आर्य" 
"गुलाब के फूल ? पर उसमें तो कांटे होते हैं भार्ये । आपने देव को गुलाब के फूल लेने जाने ही क्यों दिया ? अगर कोई कांटा चुभ जायेगा तो उसके नन्हे नन्हे हाथों से रक्त निकल आयेगा । तब कितनी पीड़ा होगी उसे और मुझे, हम दोनों को ? तनिक ध्यान रखा करो जयंती उसका" । शुक्राचार्य देवयानी के दुख के बारे में सोचकर ही सिहर जाते थे । उनका वश चलता तो वे देवयानी से कभी कोई काम कराते ही नहीं । मगर जयंती कहती है कि देव को घर गृहस्थी का सारा काम सीखना चाहिए । वह एक स्त्री है और स्त्री जीवन कितना कठिन होता है यह बात उसे बचपन से ही समझ लेनी चाहिए । 
"मैंने उसे मना किया था आर्य, मगर आजकल वह मेरी बात मानती ही नहीं है । वह कह रही थी कि 'तात' की पूजा के लिए वह एकदम ताजा फूल लेकर आयेगी । मैं मना करती रह गई और वह फुर्र से उड़ गई । अब वह मेरे आंचल से बंधने वाली नहीं रही है आर्य । लगता है कि अब ये आसमान ही उसका आंचल बन गया है । हंसती फुदकती हुई वह अभी आती ही होगी" । जयंती देवयानी की शरारतें बता बता कर गौरवान्वित होती थी । देवयानी की शरारतें कम होने का नाम ही नहीं लेती थीं । या यों कहें कि वे दिनों दिन बढ़ती जा रही थीं । जयंती कुछ और कहती , उससे पहले ही देवयानी दनदनाते हुए घर के अंदर घुसी । 
"तात ! ये लो आपकी पूजा के लिए गुलाब के ताजा फूल । ये लाल, ये गुलाबी , ये पीला , ये सफेद और ये जामुनी रंग का । पांचो अलग अलग रंग के हैं । सब कितने सुंदर हैं ना" ? देवयानी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी । 
"हां बेटे । बहुत सुंदर फूल हैं ये पर हमारी देव से कमतर ही हैं , बेहतर नहीं" । कहते हुए शुक्राचार्य ने देवयानी को अपनी गोदी में बैठा लिया । अचानक शुक्राचार्य की निगाह देवयानी के कोमल हाथों पर गई तो उन्हें उसकी उंगलियों में रक्त की कुछ बूंदें नजर आईं और शुक्राचार्य ने झट से देवयानी की उंगलियों को अपने मुंह में लेकर चूस लिया । पता नहीं इस तरह मुंह में उंगलियां लेने से कुछ इलाज होता है या नहीं लेकिन दोनों के बीच में भावों का जो सम्प्रेषण होता है वह अवर्णनीय है । देवयानी अपना सारा दर्द भूल गई थी । 

शुक्राचार्य ने पूजा के दौरान महामृत्युंजय मंत्र का 108 बार उच्चारण किया जिसे जयंती और देवयानी ने दोहराया ।

ॐ त्रैयम्बकम् यजामहै सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् । 
उर्वा रुक्मैव बंधनाम् मृत्यु : मोक्षीय मामतृम् ।। 

देवयानी यद्यपि अभी 5 वर्ष की ही थी लेकिन उसे महामृत्युंजय मंत्र पूरा कण्ठस्थ याद था । अपने नन्हे नन्हे हाथों से शिवजी की पूजा करते हुए देवयानी ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे राजा हिमवान की पुत्री पार्वती शिवजी की पूजा कर रही हो । शुक्राचार्य ने पूजा करती हुई देवयानी की ओर देखा । वात्सल्य की अधिकता के कारण उनका हृदय भर आया और उन्होंने देवयानी को अपने सीने से लगा लिया । यदि मां का दिल पुत्र में बसता है तो पिता का हृदय भी पुत्री में ही धड़कता है । शुक्राचार्य पूजा करने के पश्चात महाराज वृषपर्वा के दरबार में चले गए । 

क्रमश: 

श्री हरि 
21.4.23 

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2 Comments

Gunjan Kamal

23-Apr-2023 07:45 PM

👏👌

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Reena yadav

21-Apr-2023 03:36 PM

👍👍

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